आज का देवदास - व्यंगात्मक कहानी




नए युग ने नए देवदास को जन्म दिया है। ये आज का देव है जो पारो को धर्मपत्नी पाकर अब कही और अग्रसर है। बेचारी पारो हाथ में दिया जलाय, दरबाजे की ओर टकटकी लगाए अपने देवा की राह निहारती हैं। देर रात तक देव बाबू जब घर का रुख़ नहीं करते तो चुन्नी लाल को फ़ोन लगाती है " भैया आपने देव को देखा क्या? चुन्नी लाल हाथो में बोतल लिए, " नहीं भाभी मैंने तो कल से देव को नहीं देखा". जैसे ही पारो ने फ़ोन रखा चुन्नी लाल भागा भागा चंद्रमुखी के घर की ओर गया। देवा अरे ओ देवा भाभी का फ़ोन आया था घर जा रे। गुलाब की पंखुड़ियों में लिपटा देव चंद्रमुखी को टकटकी लगाए देखे जा रहा है और चंद्रमुखी का हाथ अपने हाथ में लिए यूँ बेसुध है जैसे उसे किसी की परवाह नहीं है। दूर से जब चुन्नी की बातों को अनसुना किया तो वो पास आकर बोला, मैं कबसे बोल रहा हूँ तुम सुनते क्यों नहीं, भाभी परेशान है राह देख रही रे। देव अचानक से सकपकाया हुआ चुन्नी की ओर देखा। अरे चुन्नी, भाई तू कब आया, और क्या बोल रहा हैं ? अरे देवा तू घर जा तुझे सब पता चल जायेगा। देवा को ध्यान आया की अरे आज काफ़ी देर हो गई घर नहीं गया। और झटसे वो अपने घर की ओर भागा।
यहाँ पारवती की इंतजार भरी ऑंखें गुस्से में तब्दील हो गयी थी और होती भी क्यों नहीं। अमीरी-ग़रीबी के दीवारों को तोड़कर, ज़माने भर के तानो को सुनकर, लाख जतन से देव और उसकी शादी हुई थी। दोनों के घरवाले भी इस रिश्ते के लिए मानने को तैयार नहीं थे। देव ने भी बहुत पापड़ बेले थे पारो की माँ से हज़ार मिन्नतें किए। आपकी बेटी को मैं हर ख़ुशी दूंगा, रानी बनाकर रखूँगा फलाना ढिमकाना। शादी हुई सब अच्छा था। पर अब अच्छा काफ़ी नहीं था। देव का मन और कदम लड़खड़ाते हुए चंद्रमुखी के पास पंहुचा दिया। ये चंद्रमुखी भी अलग ही है। ज़माने का रंग इसपे ख़ूब चढ़ा है। ये प्रेम की नहीं बल्की दौलत की पुजारिन हैं।उसे सही गलत से कोई वास्ता नहीं। उसे बस देव के दिए तोहफ़ों से मतलब हैं। स्त्री के भी कई रूप है ये स्त्री रुपी एक विचित्र उदहारण है। किसी का घर बसे या टूटे इसे क्या। देव अब अक्सर काम के बाद या काम के बहाने यही आ धमकता है। चंद्रमुखी भी उसका ख़ूब मनोरंजन करती है। 

देव को दरबाजे पाकर पारो का प्रेम भरा हृदय गुस्से में तब्दील हो गया। क्रोध प्रेम का ही बिछड़ा हुआ भाई है। जो अक्सर लड़ता झगड़ता है पर साथ रहता है। पारो ने खिसियाई आवाज़ में देव से पुछा, 'कहा रह गए थे देवा कबसे इंतजार कर रही हूँ, न फ़ोन करते हो न ही फ़ोन का जबाब ही देते हो। मैं कितना चिंतित थी पता नहीं कहा रह गए! देव ने प्रतिउत्तर में कहा अरे यार मैं दफ़्तर में ही तो था और काम में फंस गया था तुम इतना चिंता क्यों करती हूँ? कौन सा मैं शहर के बाहर चला गया। पारो के चढ़ी हुई त्योरियां अब शांत हो गई। गुस्से की बिदाई हुई तो भाई साहब प्रेम ने मन में जगह बना ली। पारो दौड़ी भागी किचेन से खाने की थाली सज़ा लाई। देव खाना खा लो बहुत भूख़ लगी होगी। देव ने एक मुस्कान बिखेड दिया और खाना खाने लगा।

-चंचल साक्षी  

(ये कहानी मात्र मेरी कल्पना है अगर इसके किसी भी शब्द या शब्दों के भाव से आप अपने आप को पाते है तो ये इत्तेफाक हो सकता है। अगर ये कहानी आपको पसंद आई हो तो कमेंट में अपनी प्रतिक्रिया दे)


(With due respect to Sharat Chandra Chattopadhyay, shanjay leela bhanshali, all the great actor in the film devdas, specially aishwarya and madhuri I have written this story so please ignore if you find anything irrelevant) 

Comments

Santosh Jha said…
"सतचरित्र और कुचरित्र" को बहुत सुंदर से पुनर्परिभाषित करती है ये कथा...!

आप की लेखनी, बहुत मजबूत है... आपको किसी उपन्यास पर भी हाथ आजमाना चाहिये...
Chanchal Sakshi said…
बहुत शुक्रिया संतोष जी, आभारी हूँ। 

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