सुनामी के बाद - कविता






उजड़ी जीवन संभलने लगी 

टूटे घड़ौंदे जुड़ने लगी 

सुनामी के बाद। 

(पहले)


सुनामी ने सब उजाड़ दिया था। 

घर-बार उखाड़ दिया था। 

हर ओर फैला प्रलय  

जल का हुहुकार। 

न जीवन रहा 

न उसके निसान 

चीटी हो या हाथी 

अमीर हो या ग़रीब 

सबको लिया चपेट में

अपने तांडव के लपेट में 

गया सबकुछ लील 

अथाह गहरे पेट में 

वो भयाबह नज़ारा था 

मंज़र मौत का अखाड़ा था 

अब कुछ सुनाई नहीं देता 

कुछ भी दिखाई नहीं देता 

दूर दूर तक सिर्फ़ 

पानी ही पानी 

धरती जलमग्न 

ऊपर आकाश की रवानी  

झमाझम,छम-छम,तर-तर

क्रोधित थी बरसा रानी 


 (अब)


न ऑफिस जाने की जल्दी 

न बस छूटा जा रहा 

न कोई कमाने में व्यस्त

न कोई गवाने में व्यस्त 

शॉपिंग मॉल, बड़ी गाड़ियां 

ऐसो आराम, खेतो की क्यारियां 

एक पल में ही सब बिखड़ गया था 

श्रृष्टिकर्ता के शृष्टि का रूप बिगड़ गया था 


(फिर)


रचयिता ने एक बार सब संभाला 

प्रकृति को क्रोध से बाहर निकाला 

शांत हुयी जलधारा 

बच निकले कुछ प्रलय का मारा।

-चंचल साक्षी 


(अगर वातावरण के प्रति हम आज से सतर्क नहीं हुए तो श्रृष्टिकर्ता भी हमारे शृष्टि पर कबतक दया करेंगे! इस कविता के माध्यम से मेरी आशा है की आप उस भयाबह मंजर की कल्पना करने में सक्षम हो और जिम्मेदार बने।)


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