कविता शीर्षक: प्रेम में न पड़ मन रे 


प्रेम में न पड़ मन रे,   
प्रेम न कोई करता जग में,
न मन का जोड़ है मन से,
भागे फ़िरते लोग
यहाँ सिर्फ़ दिखावेपन पे,
जो जितना चमकाये
उठे नज़र उस तन पे,
खूबसूरत मन कोई न समझे 
ऊपर ऊपर इतराये,
प्रेम वो खयाल है
जो आये मन मुस्काये,
उषा की भाँती
मन के अंधेरे दूर हो जाये,
ज्यों ओस की बूंद
निश्छल पावन 
प्रकृति की कोंख से आये,
ज्यों फूलों की खुशबू
फ़िज़ा में फैल जाये,
जिस मन में प्रेम बसे
वो निर्मल हो जाये,
पर, जगवाले प्रेम कहाँ 
व्यापार किया करें,
प्रेम के नाम वे स्वार्थपूर्ति की मांग करे,
जबतक पूर्ति करोगीसाथ निभाएंगे,
हर ज़िद मानोगी फ़िर ख़ुशी जताएंगे, 
अगर ऐतराज़ किया
तुम्हे छोड़ आगे बढ़ जाएंगे,
और ये सिलसिला चलता रहेगा,
ये व्यापार फलता रहेगा,
अगर कोई टूटे
वो तुम होगी,
जिसे पीड़ा भी होगी
और बता भी नही पाओगी,
एक पल तुम्हारे दिल में होगा,
इस दुनियां का नाश
क्यों नही होता,
जिसे मैंने चाहा
प्रेम का भागी बनाया
उसने मुझे यूँ कैसे ठुकराया?
-चंचल सिंह 'साक्षी'




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